सुभाष ठाकुर*******
नेताओं को पार्टी की मजबूती की चिंता नही ,बल्कि नेताओं को सबसे पहले आपनी चिंता होती है कि मेरा क्या होने वाला है , नेता को किसी अन्य राजनीतिक दल से कोई अच्छा ऑफर मिलता है तो वह सबसे पहले अपनी पार्टी को किक मारकर खुद का स्वार्थ साधने की पहल करता है।
राजनीतिक जन सेवा के नाम पर जनतंत्र के कंधों पर स्वार हो कर राजनीति को व्यापार बना डाला है।
जन सेवा नाम का यह राजनीतिक व्यापार देश के हर राज्यों में राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर शहर से लेकर गांव तक पनप चुका है।
राजनीति में जन सेवा के लिए 80 के दशक में लोगों को चूना जाता था । लेकिन आज अच्छा
व्यापारी चुनावों के दौरान शराब वांट कर ,पैसे वांट कर चिकन खिला कर ,झूठी घोषणा कर, बड़े बड़े झूठे वादे करने वाला ही राजनीतिक व्यापारी चुना जा रहा है। जन सेवा के भाव रखने वाला नेताओं के खिलाफ सभी व्यापारी इक्ट्ठा होकर समाज सेवकों के खिलाफ खड़े होकर उन्हें राजनीति से दूर रखा जाता है।
देश की राजनीतिक को ऐसे व्यापारियों द्वारा लोकतंत्र की हत्या करने का काम किया है ।आमजनता के टेक्स के पैसों से को विकासात्मक योजना केंद्र तथा राज्य सरकारों द्वारा शुरू की जाती है उसे नेता अपनी योजना बता कर सदियों तक उस योजना को अपनी राजनीति का प्रचार तंत्र बनाकर उसी जनता पर स्वार हो जाता है । होना यह चाहिए था कि जिस जनतंत्र के मतों से उन्हें सदन और विधानसभा में चुन कर भेजा जाता है उसी जनता को उन नेताओं को भगवान रूपी मानना चाहिए लेकिन यह सदन में पहुंचते ही यह जनसेवक से राजनीतिक व्यापारी बन बैठते हैं। जनता अपने किस्मत को पूरे पांच साल कोसती रहती है कि उन्होंने गलत लोग को चुना ।लेकिन फिर से दूसरा कोई और जन सेवक की शरण लेने जनता के बीच पहुंच जाता है । पहले व्यापारी की बुराई कर खुद को जनसेवक बता कर उसी जनता को अपने पक्ष में करके अपनी राजनितिक रोटियों का जुगाड कर अपने वायपर को स्थापित कर जाता है ।
क्या सुधार की संभावना नही होनी चाहिए ?