वरिष्ठ पत्रकार हेमकांत कात्यायन की पहली बरसी पर विशेष यादें 

हेमकांत कात्यायन नाटक पुनर्जीवन के कठिन सफर में मेरे सारथी थे 

अमर ज्वाला //रूप उपाध्याय 

यांदे राख के ढेर में छिपी उस चिंगारी समान होती हैं जिन्हे जरा सा भी कुरेदो तो चिंगारी चटक कर शोला बनने का दम भरने लगती हैं। दूसरे शब्दों में कहूं तो जब कोई अपने संघर्ष के दिनों के यांदो के कालखंड में कुछ ढूंढने निकले तो यांदें परत दर परत उखड़ने लगती हैं और आवाज लगाने लगती हैं कि “मित्र, तुम्हे दुनिया से रुक्सत होने की इतनी जल्दी क्यों थी भला”

जल्दी इस लिए कह रहा हूँ कि जिस रात उह्नोने दुनिया को अलविदा कहा उस रात वो मुझे मेरे घर के बाहर रात के लगभग साढ़े दस बजे मिले। अक्सर इतनी देर रात वो बाहर नहीं रहते थे। मैंने कारण पूछा तो बोले पोस्ट ऑफिस के पास कार पार्क की थी तो देखने गए थे कि कहीं कार ‘अनलॉक’ तो नहीं रह गयी थी। हमारा बस यही अंतिम वार्तालाप था और अंतिम मुलाकात भी। रात को लगभग एक बजे पता चला हेमकांत जी को अस्पताल ले गए हैं और फिर सूचना मिली कि हेमकांत जी ने इस संसार से अंतिम विदा ले ली है। सब इतनी जल्दी जल्दी हो गया कि आपस में बातचीत का समय भी नहीं मिला।

सच कहूं तो मैं नाटक में लगभग दो दशक की ख़ामोशी के बाद पुनः वापसी का मन बना रहा था और इस बार फिर से अपने पुराने साथियों के साथ संघर्ष के उन कठिन दिनों के सामन ही कुछ और नया करने की सोची थी और नाटक को ‘कॉपी-पेस्ट’ के दौर से निकाल कर नाटक को व्यक्ति के भीतर से निकाल कर उसे रंगमंच पर खेला जाये ताकी देखने वाले को वो नाटक नाटक नहीं अपने आस पास की किसी घटना की पुनर्विति लगे और नाटक का सार और प्रस्तुति उसे अंतर्मन के द्वन्द तो किसी दिशा या दशा की तरफ भी ले जाये और एक सामाजिक तानाबाना लिए एक सार्थक हल भी यह नाटक समाज को दे सके। क्योंकि जिंदगी के बहुत से पन्ने ऐसे होते हैं जहाँ कुछ खट्टा-मीठा या दर्द या आंसुओं से भरा छलकता सा बहुत कुछ लिखा रहता है जिसे आम आदमी या तो समझ कर भी भीतर ही भीतर दफ़न कर देता है या फिर ताउम्र इस इन्तजार में रहता है कि भीतर का वो द्वन्द लेखनी के रूप में बाहर निकल आये और मैं समझता हूँ नाटक इस मामले में सबसे मार्मिक और सटीक साधन है।

बस ऐसी ही ढेरों उलझने दिमाग में समेट कर हेमकांत जी से बात की थी कि मैं उनके नाटक पर विस्तार से काम करूँगा और किसी दिन बैठेंगे और शब्दों को यथार्थ में बदलने की ‘प्लांनिंग’ करेंगे मगर तभी हेमकांत जी चलते-फिरते हमारे बीच से यूँ उठ कर चल दिए जैसे हमसे उनका कोई सम्बद्ध ही नहीं था।

हेमकांत जी के साथ मेरा रिश्ता बड़े भाई जैसा भी था और दोस्त जैसा भी। हेमकांत जी असल मे मेरे बड़े भाई डॉक्टर चेतन के अंतरिम मित्र थे और हेमकांत जी का इस रिश्ते से हमारे घर आना जाना भी था और हमारे घर में उनकी किसी सलाह या किसी चीज का विरोध भी उतना ही वजन रखता था जितना मेरे बड़े भाई डॉक्टर चेतन के शब्दों का।

मैंने सत्तर-अस्सी के दशक में नाटक से जुड़ा और वो भी भोपाल जैसी साहित्यिक गतिविधियों और नाटक के केंद्र की नगरी में जहाँ हर नागरिक के भीतर कोई कोई न कोई रचनात्मक कला अंगड़ाई लेती थी। वर्षों वरिष्ठ नाटककारों और साहित्यकारों के सानिध्य ने मेरे भीतर के नाटक के कलाकार को ऐसी हवा दी कि यह शौक अब आदत और फिर जूनून बनने में कब बदल गया पता ही नहीं चला।

जब अपने प्रदेश वापिस आया तो पाया कि यहाँ तो अभी नाटक क्या लोग फिल्म भी देखना बुरा समझते थे और अगर किसी बच्चे के पास अगर फ़िल्मी मैगजीन मिल जाये तो समझों उसका तो सामाजिक बहिष्कार ही न हो जाये। हाँ नाटक खेलने की कला रामलीला खेलने के साथ जिन्दा तो थी मगर सिर्फ रामलीला मंचन तक ही…नाटक खेलने की सोचना भी किसी सामाजिक अपराध से कम नहीं था।

खैर जैसे-तैसे तमाम अभावों और सामाजिक उलाहनों के विष का ताप सहते हुए मैं नाटक तैयार तो कर लिया करता था मगर उसके मंचन में महिला और बाल कलाकार भी होते थे और नाटक में देर-सबेर होना या फिर शहर से बाहर या कभी कभी दूसरे प्रदेश में जाकर नाटक खेलना तभी संभव हो पाता जब कोई माननीय और परिपक्व व्यक्ति इस सबकी जिमेवारी लेता। ऐसे में हेमकांत जी और उनकी जीवनसंगिनी ने मेरा हाथ थामा और हेमकांत जी टीम के सयोंजक और ‘हेड’ बतौर सब अभिभावकों को उनके बच्चों की सुरक्षा का आश्वासन दे देते थे और और मेरी नाटक की टीम के ‘हेड’ बतौर मेरे सारथी बन साथ चल पड़ते थे और अपना समय और सहयोग ही नहीं देते थे अपितु जितना हो सकता था उससे भी ज्यादा आर्थिक मदद भी करते थे।

सच तो यही है नाटकों के इस पुनर्जीवन के प्रयास में मेरे पिता डॉक्टर नीलमणि उपाध्याय और हेमकांत कात्यायन का बहुत बड़ा योगदान रहा जिससे मुझ जैसे खाली जेब कुछ भी कर गुजरने वाले नौजवान को इतना आत्मबल मिला कि एक दिन नाटकों के प्रति समाज का नजरिया भी बदला और मंडी और प्रदेश में नाटकों का दौर भी शुरू हुआ।

आज हेमकांत जी की पुण्यतिथि पर मैं उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए यही कहूंगा कि हेमकांत जी आपने निर्भीक पत्रकारिता कर भारत के संविंधान के प्रति अपना कर्तव्य ही नहीं निभाया बल्कि सामाजिक उतरदायित्व निभाने में भी उच्च मापदंड स्थापित कर गए है।

हेमकांत जी पंजाब केसरी से आजीवन जुड़े रहे और कुछ वर्ष दैनिक ट्रिब्यून और उत्तम हिन्दू से भी उनका नाता रहा। मैं तो यही कहूंगा की हेमकांत जी की पत्रकारिता की पहचान किसी अखवार से नहीं थी उनके मुखर व्यक्तित्व से थी, अखवारें तो मात्र माध्यम थी।

मुझे याद है हेमकांत जी ने मुझे एक अखवारे के मालिक और संपादक का भावुक पात्र दिखाया था जिसमे उन्होंने हेमकांत जी से कहा था कि हेमकांत जी बहुत ही सटीक और ईमानदार पत्रकार हैं और अखवार को उचाईयां देने में में उनकी पत्रकारिता की बहुत बड़ी भूमिका रही है मगर…मगर अब दौर विज्ञापनों का है और हेमकांत जी क्योंकि विज्ञापन करने से मना करते थे तो अखवार के मालिक ने उन्हें आंसुओं से भरा पत्र लिख कर पत्रकारिता से मुक्त कर दिया था। ऐसे थे हेमकांत कात्यायन।

वरिष्ठ पत्रकार कृष्ण भानू द्वारा हेमकांत के फेसबुक पर पोस्ट किया भावुक आलेख

श्रमजीवी पत्रकार का संघर्ष मृत्युपूर्व तक है–एक लंबा और कभी न थकने वाला रोमांचकारी संघर्ष ! पत्रकारीय संघर्ष ‘देवतुल्य’ बना देता है। सक्रिय पत्रकारिता में निरंतर 30 वर्ष पूरे करने वाले सब पत्रकार मेरी दृष्टि में देवतुल्य हो गए हैं। परिस्थितियों की जटिलताओं के दृष्टिगत वर्तमान काल में पत्रकारिता के “मैदान-ए जंग” में लगातार 30 साल या इससे अधिक संघर्ष करने की बराबरी 300 वर्ष से की जा सकती है।

इस दृष्टि से अपना संघर्ष-काल 300 वर्ष से अधिक हो गया। 1980 में छोटी उम्र में ही पत्रकार हो गया। शुरुआत अपने गृह नगर मंडी से की। तब मंडी में कुल तीन ही पत्रकार थे। मुरारी लाल आर्य जी, किशोरी लाल सूद जी, हेमकांत कात्यायन जी और चौथा मैं था। अच्छी बात है कि आज इस छोटे से नगर में सौ से अधिक पत्रकार हैं। आर्य जी अब हमारे बीच नहीं हैं। किशोरी लाल सूद जी और हेमकांत जी आज भी सक्रिय हैं। दोनों पत्रकारिता के क्षेत्र में अपने युग के सूर्य कहे जाते हैं। कभी कभार जब मिल जाते हैं तो अच्छा लगता है, सुकून मिलता है। उन दिनों इन तीनों में सबसे छोटा और नया मैं ही था,इसलिए सभी से कुछ न कुछ ग्रहण किया, सीखा।

 

यहां मेरे संग जो विराजमान हैं, ये हेमकांत कात्यायन जी हैं। मंडी जाना हुआ तो यह फोटू बन गया। अपने इर्दगिर्द निगाह करता हूँ तो लगता है कि पत्रकार का संघर्ष मृत्युपूर्व तक है—एक लंबा और कभी न थकने वाला कठिन, लेकिन रोमांचक संघर्ष! ‘खाली हाथ आये थे खाली हाथ रहेंगे या जायेंगे’ जैसी अनेक कहावतें हमारे ऊपर अक्षरशः चरितार्थ होती हैं। बावजूद, हमें गर्व है, हम पत्रकार हैं। हम अपनी तमाम पीड़ाओं का ढिंढोरा नहीं पीटते, सिर्फ आम जनमानस की पीड़ा को महसूसते हैं और ऐसी तमाम पीड़ाओं पर दिन

रात काम कर गौरवान्वित महसूस करते हैं।

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