फुंगणी माता ने मंडी के राजा की सेवा को छोड़ चौहार घाटी के पंजौंड नामक स्थान को क्यों चुना?

फुंगणी माता ने मंडी के राजा की सेवा को छोड़ चौहार घाटी के पंजौंड नामक स्थान को क्यों चुना?
सुभाष ठाकुर*******
मंडी और सुकेत के राजा बंगाल के सेन वंश, जो चन्द्रवंशी राजपूतो की परम्परा से सम्बन्ध रखते थे। बान के वंशज अजबर सेन, जो की बाहू सेन से उन्नीसवीं पीढ़ी की संतान थे, ने 1527 ईस्वी में मंडी शहर की स्थापना की। अजबर सेन मंडी के पहले महान शासक थे। वह अपने वंश में राजा का पद ग्रहण करने वाले वे शायद पहले व्यक्ति थे। उन्होंने यहां चार मिनारों से सुसज्जित एक महल का निर्माण किया। उन्होंने भूत नाथ का मंदिर भी बनाया और उनकी रानी ने त्रिलोकी नाथ का निर्माण किया। उन्हीं के वंशज राजा सिधा सेन थे, जो 1678 ईस्वी में राजा गुर सेन के बाद राजा बने। मंडी उनके शासनकाल से पहले कभी इतना शक्तिशाली नहीं था और उसके बाद भी कभी नहीं हुआ। राजा सिद्ध सेन द्वारा मंडी में कई मंदिरों का निर्माण किया और उनके बारे में कहा जाता है कि वह तंत्र मंत्रों विद्याओं के महाज्ञानी भी कहा जाता था। राजाओं द्वारा अनेकों देवी देवताओं के मंदिरों की स्थापना कर सदियों से हिंदू धर्म में देवी देवताओं में आस्था चली आ रही है। कहा जाता है कि मंडी के एक राजा ने विभिन्न स्थानों से प्रसिद्ध देवी माताओं को लेकर मंडी में विभिन्न स्थानों में स्थापित किया हुआ है। मंडी के राजमहल जिसका नाम दमदमा पेलेस है वहां पर मंडी का राजा कोलकाता से लाई हुई देवी माता की पूजा किया करते थे। माता की मूर्ति की पूजा तब तक नहीं होती थी जा तक माता को शुद्ध जल से स्नान नही किया जाता था। माता के स्नान के लिए राजा के वेगार ढोने वालों द्वारा चौहार घाटी के नरगू पर्वत माला के नीचे हिंदू गारण हिमगार्डन नामक एक हिम कुण्ड से किल्टे में भरकर बर्फ को मंडी राजमहल में पहुंचा कर देवी माता की मूर्त का राजा द्वारा शुद्ध जल से स्नान कर हर रोज पूजा की जाती थी।
लोस्सर के फूलों की मैहक से खींची चली आई माता, घाटी को बनाया सबसे बड़ा देवी स्थल
हिमाचल प्रदेश के मण्डी जिले के पधर उपमंडल के अंतर्गत चौहार घाटी एक अनूठी और अद्भुत घाटी है। घाटी की प्राकृतिक सुषमा को संजोये हुये धीरे-धीरे लाखों लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर रही है। चौहार घाटी में थल्टूखोड से लगभग 15 किमी की दूरी पर कुल्लू और मण्डी जिले की अन्तिम सीमा पर बर्फ की श्वेत चादर ओड़े हुये नरगू पर्वत माला के नीचे हिंदू गारण ” हिमगार्डन ” नामक एक हिम कुंड है ,जहाँ लोग आस पास से बर्फ एकत्रित करके जमा कर लेते थे व यथा समय राजा के पास पहुंचाते रहते थे। इस घाटी की यह बदनसीबी रही है कि यहाँ विकास कार्य उतने नहीं हुए। जितने के प्रदेश के अन्य क्षेत्रों में हुए हैं, घाटी की भोली-भाली जनता, अनपढ़ लोग आज भी आधुनिक चैहल-पहल से दूर सरकारी कानून से भी अधिक अपने इष्ट-देवताओं के रूठने और मनाने से त्रस्त रहते हैं। भले ही देव समाज हिंदू धर्म का सबसे बड़ा आस्था रखने वाला एक शुद्ध और पवित्र समाज माना जाता है लेकिन धीरे-धीरे देव संस्कृति में राजनीतिक दखल अंदाजी से बदलाव हो रहा है। देवी-देवताओं के प्रति अटूट श्रद्धा रखते हुए व्यतीत कर रहे हैं। इन देवी-देवताओं में से ही एक मुख्य देवी माँ फुंगणी है जो घाटी के अराध्य देवता जिसकी पूरे मंडी, कुल्लू , कांगड़ा, हमीरपुर, बिलासपुर और शिमला जिलों के लोगों में आपार आस्था है। यह माता फुंगणी हुरंग, घडौनी नारायण तथा पशाकोट देव से बड़ी है। माता फुंगणी देवी यहीं के लोगों की कुल देवी भी है। सबसे बड़ी बात यह है कि जब देवताओं के मंत्रों का उच्चारण होता है तब सबसे पहले माता फुंगणी के नाम के उच्चारण किए बिना नहीं होता है।

फुंगणी माता कौन है, कहां से आईं हैं, इसके बारे में विभिन्न जनश्रुतियां हैं।
देवी के नाम से पड़ा फुंगणी धार का नाम

सैकड़ों वर्ष पूर्व भारत में छोटे-2 राज्य थे, उस समय मण्डी में कोई राजा था। महल के एक भाग में जिसका नाम दमदमा बेहड़ा है। फुंगणी माता की मूर्ति रखकर वह राजा उसकी पूजा किया करता था। कहते हैं कि उस राजा के पास भी यह देवी कलकता से आई थी। कैसे आई व क्यों आई इसके बारे में यहाँ की जनता भी अनभिज्ञ है। उस समय की प्रथा थी कि राजा को जिस भी वस्तु की आवश्यकता होती थी, वह स्थानीय जनता से वेगार के रूप में वह वस्तु अपने महल में मंगवा लेता था। कहा जाता है कि मण्डी का तात्कालिक राजा भी फुंगणी देवी के स्नान के लिए चौहार घाटी के लोगों से वेगार के रूप में बर्फ मंगवाता था। उस बर्फ के शुद्र जल से देवी का स्नान का करवाता था तदुपरान्त देवी की पूजा करता था। एक समय की बात है कि बर्फ के किलटे में बर्फ के साथ साथ लोस्सर नाम सुगंधित फूल के घास का तिनका राजा के महल में पहुंच आया। इस घास के तिनके की सुगंधित से आकर्षित हो कर देवी माता उस बर्फ के किलटे में बैठ कर उस व्यक्ति के साथ उक्त स्थान पर चली आई। उस समय यातायात के साधन सुलभ न होने से लोग पैदल की यात्रा करते थे। मण्डी से किलटा उठाकर वह व्यक्ति झटींगरी देवी ने विश्राम करना चाहा लेकिन लोगों को देवी के आने की कोई खबर न थी। व्यक्ति ने अपने किलटे के साथ विश्राम किया तो देवी ने वहीं कुछ चमत्कार दिखाए। पूजा के अभाव में देवी कुछ कुपित हो गई। परिणाम स्वरूप वहीं की स्थानीय जनता के दुधारू पशुओं ने दूध देना बन्द कर दिया। बर्तनों में रखा ताजा दुध जमकर दहीं बनने लगा। इसके साथ-2 लोगों ने गेहूँ और जौ की फसले अपने खलिहानों में रखी थी जब वे भूसे से अनाज अलग करने लगे तो उनके खलिहान टुट गए। सारा अनाज भूसे सहित जमीन के अन्दर चला गया। खलिहान के फटने से ही वह स्थान फुटाखल के नाम से विख्यात है। बाद में जब लोगों को देवी की शक्ति का पता चला तो वे उसकी पूजा-अर्चना करने लगे। फुटाखल से किल्टा उठाकर वह व्यक्ति फिर चलने लगा। जब वह हयूंगारण नामक स्थान से नीचे पंजौड़ नामक स्थान पर पहुँचा तो वह दुबारा किलटा रखकर आराम करने लगा। यही वह स्थान है, जहाँ आज देवी का मन्दिर देखने को मिलता है। यहाँ भी पहले लोगों को देवी के आने की कोई भनक न हुई लेकिन देवी ने बाद में स्वयं प्रकट होकर लोगों को अपना मन्दिर बनाने का आदेश दिया तथा विधिपूर्वक पूजा करने के लिए भी कहा। देवी ने लोगों को हर प्रकार की आपत्तियों से रक्षा करने का आश्वासन भी दिया। पंजौड से किलटै बाला उसी हिंदूगारण में पहुंच गया। वहाँ भी देवी का निवास माना जाता है व उस पहाड़ी को भी अब देवी के नाम से फुंगणी धार के नाम से ही जाना जाता है।

भगतों की हर मनोकामना पूर्ण करती हैं मां, निसंतानो को देती हैं संतान सुख
स्थानीय जनता फुंगणी देवी के मुख्य देवी रूप में विधिपूर्वक पूजा अर्चना करती है। यह इनकी मुख्य इष्ट देवी है। किसी भी आपति से बचने के लिए लोग देवी के पास प्रार्थना करते हैं तथा देवी भी उनकी यथासमय रक्षा करती है। सूखा पडऩे पर या अतिवृष्टि होने पर लोग उसकी शरण में जाते हैं। साल में एक महीने को छोड़ कर हर मास देवी को बकरे चढ़ाए जाते हैं। सन्तान न होने पर लोग मां से सन्तान प्राप्ति के लिए प्रार्थना करते हैं। मनोकामना सिद्धि होने पर मां को बकरे चढ़ाते हैं। यहा तक कि आभूषण आदि भी देवी को भेंट करते हैं। लोगों में यह प्रथा भी प्रचलित है कि गाय या भैंस के प्रसूता होने पर सबसे पहले देवी को ही गाय व भैंस का घी चढ़ाया जाता है तभी उसे प्रयोग में लाया जाता है। देवी फुंगणी का मन्दिर साधारण पत्थरों व स्लेट की छत से बनाया गया है। जो आम मन्दिरों से सर्वथा भिन्न है। इसके अलावा देवी फुंगणी देवी के मन्दिर की यह अलग विशेषता है कि देवी के मन्दिर के साथ-2 पंजौंड गांव में भी कोई भी व्यक्ति चमड़े के जूते, चमड़े का बना अन्य सामान, बीड़ी सिग्रेट तम्बाकू आदि नहीं ले जा सकता। ये सब चीजें गांव की सीमा से बाहर ही रखनी पड़ती है यदि कोई गलती से भी इन चीजों को सीमा के अन्दर ले जाये तो उससे देवी रूष्ट हो जाती है व देवी को प्रसन्नता के लिये के लिये तत्काल बकरे देने का प्रबन्ध किया जाता है। वर्ष में दो बार सावन व आश्विन के मास में देवी के निवास स्थान पंजाँड व फुंगणी धार में स्थानीय मेले भी आयोजित होते है। जिसमें बहुत से गुर देवी के द्वारा चयनित व्यति जो सिर हिलाकर देवी का सन्देश सुनाता है। एकत्रित होते हैं व देवी का आदेश लोगों को सुनाते हैं। इन्ही मेलों में नये गुर भी चुने जाते हैं।

पंजौड नामक स्थान में आयोजित होता है मेला
फुंगणी धार में आयोजित यह मेला काहिका नाम से जाना जाता है। इन मेलों में ढोल नगाड़े तथा नरसिंग आदि बजाये जाते हैं। वह सम्मिलित रूप से प्रत्येक घर में खाने का प्रबन्ध भी किया जाता है। फुंगणी माता का एक और प्रमुख स्थान जो डेहनासर तीर्थ के नाम से विख्यात है। लगभग 45 कि.मी. दूर है। यह रास्ता पैदल तय किया जाता है। उबड़ खामद व चढ़ाई उतराई वाला है। थलदुखोड़ से चलकर पहला पड़ाव यात्री फुंगणी धार देव डवार में करते हैं। दूसरा पड़ाव सरी में करते हैं तथा तीसरा पड़ाव डेहनासर में करते हैं तथा वापसी में यात्री एक दिन में ही स्नान आदि कर के पंजीस, ‌थलदुखोड आदि स्थानों पर पंहुच जाते है। बेहना सर की उचाई जयभग 16-17 हजार फुट है। पहाड़ी बिना पेड़ पौधे की है केवल पत्थर है। पहाड़ पर यह तीर्थ स्थल का झील है। कहा जाता है की सच्चे मन से अरदास करने पर मन चाहा फल प्राप्त होता है। इसमें संतानवहीन लोग पुत्र/पुत्री की प्राप्ति के लिए प्रार्थना करते है तथा अधिकाश लोगों की मनोकामना पूर्ण होती है। हर वर्ष भादो प्र. 20 को डेहनासर में स्नान करना अति उत्तम माना गया है। वैसे तो यात्री 30 जून के बाद 30 सितम्बर तक स्नान आदि करते रहते हैं लेकिन इसके बाद यहां बर्फ पड़ जाती है। इसके कारण डैहना सर तीर्थ अपने आप बन्द हो जाता है। यह सम्पूर्ण जानकारी यहाँ के वयोवृद्धों एवमं जनश्रुतियों से प्राप्त की गई है। साथ ही साथ चौहार घाटी के लोकप्रिय देव समाज से जुड़े हुए क्षेत्र की महान हस्ती काहन चन्द ठाकुर पूर्व प्रधान गांव व डा. खा  थलटुखोड (इलाका चौहार घाटी) तहसील पधर जिला मण्डी हिमाचल प्रदेश द्वारा माता फुंगनी की यह कहानी अपनी एक स्मारिका में प्रकाशित की हुई है। अन्नपूर्णा देवी हिन्दू धर्म में मान्य देवी-देवताओं में विशेष रूप से पूजनीय हैं। इन्हें माँ जगदम्बा का ही एक रूप माना गया है, जिनसे सम्पूर्ण विश्व का संचालन होता है। इन्हीं जगदम्बा के अन्नपूर्णा स्वरूप से संसार का भरण-पोषण होता है। अन्नपूर्णा का शाब्दिक अर्थ है- ‘धान्य’ (अन्न) की अधिष्ठात्री।

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