भाई हिरदा राम स्वतन्त्रता सेनानी का जीवनवृत

जीवन और व्यक्तित्व :-

भाई हिरदा राम का जन्म 28 नवम्बर, सन् 1885 को मण्डी रियासत की राजधानी मण्डी नगर में हुआ । इनके पिता का नाम गज्जन सिंह था । आठवीं श्रेणी तक शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्होंने स्वर्णकार के रूप में कार्य करना आरम्भ किया। उनके पिता उन्हें उच्च शिक्षा के लिए मण्डी से बाहर भेजने में असमर्थ थे। उन दिनों मण्डी में आठवीं श्रेणी तक ही शिक्षा का प्रबंध था। इनका विवाह सरला देवी से हुआ । इनके पिता इनके शौक को देख कर इनके लिए अखबार व पुस्तकें मंगवाते रहते थे। क्रांति सम्बन्धी साहित्य पढ़ने पर इनके मन में देश प्रेम का जोश उमड़ने लगा । वे भगवद्भक्ति की ओर भी मुड़े। देश में उन दिनों स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए लोग छटपटा रहे थे। लोग अभी प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के शहीदों की याद भूले नहीं थे।

सन् 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम को अंग्रेजों ने गदर अथवा विद्रोह का नाम दिया था। देश के अनेक नौजवान विदेशों में थे। उन्होंने भी स्वतन्त्रता आन्दोलन में योगदान देने का मन बना लिया था। दो जून, 1913 को युगान्तर आश्रम सान फ्रांसिस्को में गदर पार्टी की स्थापना की गई। यहीं से लाला हरदयाल ने “गदर की गूंज” साप्ताहिक पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ किया । मण्डी रियासत के एक युवक हरदेव का सम्पर्क डॉ. मथुरादास के माध्यम से गदर पार्टी से हुआ। गदर पार्टी की योजना के अनुसार हरदेव को कांगड़ा में कार्य करने का आदेश हुआ। हरदेव अपने शहर मण्डी आए। वह गदर पार्टी का प्रमुख सदस्य बन गया। मण्डी में गदर पार्टी की स्थापना कर दी गई।

रास बिहारी बोस से सम्पर्क:-

बंगाल के प्रसिद्ध क्रांतिकारी रास बिहारी लाल बोस पंजाब के क्रांतिकारियों के बुलावे पर जनवरी, 1915 में अमृतसर आए। रानी खैरगढ़ी ने भाई हिरदा राम को बम बनाने के प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए रास बिहारी बोस के पास भेजा। बोस ने वायसराय पर बम फेंका था तथा वे दिल्ली और लाहौर बम षड्यंत्र के भी अभियुक्त थे । बम बनाने के लिए जंगलों को चुना जाता था। पूरे देश में अंग्रेजों से टक्कर लेने के लिए पर्याप्त धन चाहिए था अतः क्रान्तिकारी सरकारी खजाने में लूटपाट भी करने लगे। पुलिस क्रान्तिकारियों के पीछे पड़ गई। इन में से कुछ पकड़ में आ जाते थे।

बम बनाने का कार्य:-

बम बनाने का काम कठिन तथा जोखिम भरा था। इस कार्य के लिए परमानन्द, डॉ. मथरा सिंह और भाई हिरदा राम चुने गए। भाई हिरदा राम बिहारी बोस के विश्वासपात्र तथा निकटतम साथी बन गए। गदर पार्टी ने 21 फरवरी, 1915 को गदर का दिन निश्चित किया परन्तु बाद में यह तारीख बदल कर 19 फरवरी कर दी गई। क्रान्तिकारियों के एक साथी कृपाल सिंह ने इस तिथि की सूचना पुलिस को दे दी थी अतः तिथि में परिवर्तन किया गया। क्रान्तिकारियों को सांकेतिक भाषा में तार भेजे गए परन्तु सरकार को उनकी गतिविधियों का पता चल गया। अतः भाई हिरदा राम तथा साथियों को गिरफ्तार करके लाहौर सैण्ट्रल जेल भेज दिया गया। हिरदा राम बमों के साथ पकड़ा गया था । 26 फरवरी को हिरदा राम की पुस्तकें तथा कपड़े एक मकान पर छापा मारने के बाद पुलिस के हाथ लगे ।

लाहौर सेंट्रल जेल में क्रांतिकारियों के विरूद्ध 26 अप्रैल, 1915 को मुकदमा चला। मुकदमे की सुनवाई तीन विशेष न्यायाधीशों का दल कर रहा था। इस दल में दो न्यायाधीश अंग्रेज थे। इनके नाम ए.ए. इरविन तथा टी.पी. ऐलिस थे। सरकारी वकील के रूप में पैरवी के लिए इंग्लैंड के प्रसिद्ध बैरिस्टर सी. वेवन पिटमैन को बुलाया गया था। भाई हिरदा राम की पैरवी करने वाला कोई नहीं था ।

इस लाहौर बम काण्ड में 81 अपराधियों पर सरकार बनाम आंनद किशोर तथा अन्यों पर मुकद्दमा चलाया गया। इसमें भाई हिरदा राम अभियुक्त नंबर 27 पर इस प्रकार का फैसला दिया गया।

भाई हिरदा राम की नाबालिग पत्नी सरला देवी की अपील पर वायसराय हार्डिंग ने भाई हिरदा राम की फांसी की सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया।

कालापानी की सजा – अण्डेमान जेल में उनकों बेड़ियों और हथकड़ियों में जकड़ कर रखा गया। यहां उन्होंने कठोर कारावास का लम्बा समय काटा। वहां उनको अमानवीय यातनाएं दी गई। चक्की पीसना, बैल की तरह कोल्हू खींचना। हंटरों की मार तथा घटिया भोजन ने उनके स्वास्थ्य की कमर तोड़ दी थी । यहां उनका परिचय वीर सावरकर से हुआ। रमदिन वीर सावरकर को लोहे की बेड़ी और हथकड़ी में जकड़ा हुआ था। उनको कोड़ों से मारा जा रहा था। इस दृश्य को वह सहन नहीं कर सके। इस पर वह दण्ड देने वालों को कड़क कर बोले जिस पर उनको सजा के तौर पर चालीस दिन तक लोहे के पिंजरे में बन्द कर के रखा गया। इस तरह उन्होंने अण्डेमान जेल उसके बाद मद्रास जेल में अपनी आजीवन कारावास की सजा काट कर वह सन् 1929 को अपने घर रियासत मण्डी में आये ।

 

भाई जी को मण्डी लौटने पर उनकी देश सेवा का कोई सम्मान न दिया । देश आजाद हो गया। नींव के पत्थर को किसी ने नहीं पहचाना। भाई हिरदा राम जी के साथ स्कूल बाजार में द्वारकानाथ शर्मा की दुकान पर मेरी उनसे मुलाकात होती थी। वे कई बार कहते थे कि सरकार ने तो उसकी केस के दौरान जब्त की गई जमीन और जंगल भी अभी तक नहीं दिए हैं।

मुझे अच्छी तरह याद है आज़ादी के बाद भी उस देशभक्त स्वतंत्रता सेनानी को भारत सरकार पर हिमाचल सरकार से उनके जी कुछ नहीं मिला। आर्थिक तंगी और टूटे हुए शरीर के साथ मुश्किल से अपने परिवार को पालते हुए वे इतने थक चुके थे। इनके दो पुत्र विक्रमजीत सिंह व रणजीत सिंह, तथा एक पुत्री सावित्री देवी है।

21 अगस्त, सन् 1965 को इस महान देश भक्त का प्राणान्त हो गया। उस समय अपने पुत्र रणजीत सिंह के पास शिमला में रह रहे थे।

देशभक्त कभी नहीं मरते उनके कार्य उनको सदा अमर रखते हैं।

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