हिमाचल प्रदेश में वन अधिकार कानून फिर बनाया जा रहा विभागीय गलतफहमियों का शिकार

पर्यावरण एवं सामाजिक संगठनों ने वन विभाग के हस्तक्षेप पर उठाए सवाल, कहा- संविधान प्रदत्त प्रक्रिया का हो रहा उल्लंघन*

14 अप्रैल 2025 को अंबेडकर दिवस तथा हिमाचल दिवस के एक दिन पहले राज्य के पर्यावरण एवं सामाजिक संगठन तथा वन अधिकार कार्यकर्ताओं ने वनाश्रित समुदायों के आजीविका, जैव विविधता व पारिस्थितिकी संरक्षण के अधिकारों के प्रति जारी वन विभागीय के उपेक्षा पूर्ण व्यवहार पर गहरी चिंता व्यक्त की है।

इन संगठनों ने राज्य के प्रधान मुख्य वन संरक्षक (HoFF) द्वारा वन अधिकार कानून 2006 के क्रियान्वयन को लेकर जिला उपायुक्त व अन्य जिला स्तरीय अधिकारियों को भेजे गए पत्र पर गंभीर आपत्ति जताई है। यह पत्र ऐसे समय पर जारी हुआ है जब राज्य सरकार इसके क्रियान्वयन को लेकर गंभीर प्रयास कर रही है। स्वयं राज्य के जनजाति विभाग के मंत्री श्री जगत सिंह नेगी जिला स्तरीय अधिकारियों के साथ वन अधिकार कानून पर संवादात्मक प्रशिक्षण सत्र आयोजित कर रहे हैं।

पर्यावरणविदों ने इस पत्र को “अनावश्यक और कानून के प्रावधानों के विपरीत” बताते हुए कहा कि यह वन अधिकार कानून के क्रियान्वयन में और विलंब करने का प्रयास है, जिसे हिमाचल प्रदेश में पहले ही 17 वर्षों से टाल दिया गया है, जबकि महाराष्ट्र, गुजरात, मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में इसे प्रभावशाली रूप से लागू किया जा चुका है। इस विलंब के कारण लाखों वनाश्रित परिवारों के वैध दावों पर संकट उत्पन्न हो गया है, जो अपनी आजीविका के लिए वन भूमि पर निर्भर हैं।

वन विभाग द्वारा जारी पत्र में यह आशंका व्यक्त की गई है कि वन अधिकार की मान्यता से राज्य में वनों का विनाश होगा और पारिस्थितिक संतुलन बिगड़ेगा। यह दृष्टिकोण वन अधिकार कानून की मूल भावना के प्रतिकूल है तथा असत्य व गुमराह करने वाला

वन अधिकार कानून वन आश्रित समुदाय के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय को समाप्त करने का प्रयास है और इन समुदायों को सतत संसाधन प्रबंधन, जैव विविधता संरक्षण और पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने की जिम्मेदारी फिर से देता है, जिसे ब्रिटिश राज ने वनों के व्यापारिक दोहन के लिए इन समुदायों से छिना था। यह पत्र वन विभाग की औपनिवेशिक मानसिकता को दर्शता है। वन विभाग का यह प्रयास न केवल स्थानीय समुदायों की आजीविका बल्कि समुदाय-आधारित वन संरक्षण को भी आघात पहुँचाता है।

वन अधिकार कानून के तहत अधिकारों की पुष्टि और मान्यता की एक तीन-स्तरीय पारदर्शी और लोकतांत्रिक प्रक्रिया है, जिसमें ग्राम सभा, राजस्व, जनजातीय और वन विभाग के अधिकारी तथा स्थानीय पंचायत के निर्वाचित प्रतिनिधि शामिल होते हैं। प्रत्येक चरण में वन विभाग की उपस्थिति भी सुनिश्चित की गई है। ऐसे में जब सभी जांच और मान्यता की प्रक्रिया पहले से तय है, तो वन विभाग का जिला स्तरीय समिति के सदस्यों को ऐसे पत्र जारी करना, अत्यंत अनुचित और अवांछनीय है। जबकि इस तरह वन अधिकार कानून से संबंधित दिशा निर्देश जारी करने का वन विभाग को कोई कानूनी अधिकार नहीं है, बल्कि कानून के अमल में लाने की प्रक्रिया में अवरोध माना जा सकता है जो इस कानून के अनुसार अपराध है।

कानून के अंतर्गत दो श्रेणियों– अनुसूचित जनजातियाँ (ST) और अन्य परंपरागत वन निवासी (OTFD) – को अधिकार दिए गए हैं। वन विभाग का यह दावा कि कौन पात्र है और कौन नहीं, पूरी तरह भ्रामक और कानून की परिभाषाओं के विपरीत है। अन्य परंपरागत वन निवासियों (OTFD)की को लेकर वन विभाग भ्रामक व असत्य व्याख्या परोसने का प्रयास कर रहा है, जबकि कानून स्पष्ट रूप से कहता है कि अनुसूचित जनजातियों (ST) के अतिरिक्त, अन्य सभी पात्र व्यक्तियों को केवल यह प्रमाणित करता है कि वह 13 दिसंबर 2005 से पहले की तीन पीढ़ियों से संबंधित क्षेत्र में निवास कर रहे हैं और वन भूमि पर निर्भर हैं। इस के अलावा दोनों श्रेणियों के लिए सभी प्रावधान समान हैं।

हिमाचल प्रदेश में बड़ी संख्या में भूमिहीन व सीमांत किसान रहते हैं इस में लगभग 26% जनसंख्या अनुसूचित जातियों की है, जो सभी अन्य परंपरागत वन निवासी (OTFD) श्रेणी में आती हैं। वन विभाग की यह चिंता कि अन्य परंपरागत वन निवासी (OTFD) श्रेणी में बड़ी संख्या में लोग आ सकते हैं जो ‘खतरनाक’ हो सकता है। यह बात न सिर्फ कानून के विरुध है बल्कि ऐसा कहना लोगों को उनके वैध वन अधिकारों से वंचित रखने की कोशिश भी है, जो इस कानून के तहत उन्हें मिल सकते हैं।

यह भी उल्लेखनीय है कि वर्ष 2016 में हिमाचल सरकार ने पूरे राज्य में लगभग 17,503 वन अधिकार समितियों का गठन किया था और इन्हीं ग्राम सभाओं और प्रभागीय वन अधिकारी (DFO) की स्वीकृति से कई विकासात्मक कार्य संपन्न भी हुए हैं। ऐसे में अब वन विभाग द्वारा पहले से सुलझे विषयों की पुनर्व्याख्या का प्रयास अत्यंत चिंताजनक है, जो कानून के क्रियान्वयन को बाधित करता है।

वन अधिकार कानून के तहत ‘आजीविका के लिए स्वयं खेती हेतु’ वन भूमि पर अधिकार को मान्यता दी गई है, जिसमें यह नहीं कहा गया कि कौन सी फसल होनी चाहिए या नहीं। इसमें बागवानी, खेती, पशुपालन, वृक्षारोपण और अन्य आजीविका आधारित गतिविधियाँ शामिल हैं। सेब व अन्य फलदार वृक्ष बागवानी ही है। अतः सेब की खेती के दावों को सामूहिक रूप से खारिज करने की बात करना कानून की भावना और प्रावधानों की अवहेलना है। हिमाचल के हजारों परिवार सेब की खेती पर निर्भर हैं और उनके अधिकारों को नकारना उनकी आजीविका पर सीधा प्रहार है।

यह पहली बार नहीं है जब वन विभाग ने राज्य में वन अधिकार कानून के क्रियान्वयन को बाधित किया है। उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय में वन अधिकार कानून के विरुद्ध कोई आदेश नहीं है क्योंकि यह भारत की संसद द्वारा पारित एक संवैधानिक कानून है। प्रधानमुख्य वन संरक्षक (PCCF) द्वारा सुप्रीम कोर्ट के केस का उल्लेख पूरी तरह से गलत और भ्रामक है।

इन समूहों ने उक्त पत्र को तत्काल वापस लेने की मांग की है और राज्य सरकार एवं जनजातीय मामलों के मंत्रालय से अपील की है कि वे वन विभाग से संवाद करें ताकि उनकी वन संरक्षण संबंधी आशंकाओं को दूर किया जा सके। “वन विभाग को भी समुदाय के साथ विश्वास बहाली की प्रक्रिया शुरू करनी चाहिए ताकि हिमाचल के समृद्ध और विविध वनों की संयुक्त देख-भाल एवं संरक्षण जल वायु परिवर्तन के इस दौर में सुनिश्चित किया जा सके। राज्य के अनेक क्षेत्रों में विभिन्न वन अधिकार धारक स्वयं अपने वनों और साझा संसाधनों की रक्षा और प्रबंधन में लगे हैं और अगर उनके व्यक्तिगत व सामुदायिक अधिकारों की पुष्टि वन अधिकार कानून के तहत कर दी जाए, तो वे इसे और अधिक प्रतिबद्धता से करेंगे। वन अधिकार कानून में पहले से सभी आवश्यक जांच और संतुलन के प्रावधान मौजूद हैं।

“हिमाचल के वनों की शक्ति उसके लोगों में है। उनके अधिकारों को मान्यता देना पर्यावरण के लिए खतरा नहीं, बल्कि उसे संरक्षित करने का सबसे सशक्त माध्यम है।”

*अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें:*

जिया लाल नेगी, हिमलोक जाग्रति मंच : 9736760022

गुलाब सिंह, सिरमौर वन अधिकार मंच : 8219004969

गुमान सिंह, हिमालय नीति अभियान : 8219728607

मानषी आशर, हिमधरा पर्यावरण समूह : 9816345198

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