शून्य को नाटक की विविधता से भरा रूप उपाध्याय ने

शून्य को नाटक की विविधता से भरा रूप उपाध्याय ने

रंगमंच को जीने का अहसास पैदा करना, इसे सीखना और फिर इस विधा को अपनी जन्म भूमि में अपने प्रयत्नो से औरों में बाँट कर एक सुखद शुरुआत करने जैसा अहसास कितना रोमांच पैदा करता है | इसी एहसास को जीवंत करते हुए मंडी नगर की महान विभूति, दार्शनिक और शिक्षाविद्द डॉ नीलमणि उपाध्याय के यहाँ जन्मे रूप उपाध्याय ने सचमुच मूर्त रूप देकर न सिर्फ मंडी अपितु हिमाचल प्रदेश के इतिहास में नाटक और रंगमंच की एक स्वर्णिम शुरुआत की |
नाटक, खेल जगत, पत्रकारिता और लेखन जैसे विषयों में महारत हासिल कर चुके बहुआयामी प्रतिभा के धनी रूप उपाध्याय से जब नाटक और फिल्म और टी वी जगत की उनकी यात्रा के बारे में अमर ज्वाला ने जब जानना चाहा तो पता चला कि उनकी यह यात्रा इतनी सरल और आसान भी नहीं थी जितनी हम समझते थे |
“मैंने मंडी में नाटक 1975 के उस दौर में शुरू किया जब नाटक करना या करवाना या नाटक में बारे में सोचना भी सामाजिक दृष्टि से हीन माना जाता था और इस दौर की सबसे बड़ी चुनौती भी नाटक को पुनर्जीवित करना, संभावित कलाकारों को नाटक से जोड़ना और समाज का नाटक के प्रति घृणा का दृष्टिकोण बदलने की थी | उस दौर में नाटक ही नहीं फिल्म में काम करना सामाजिक दृष्टि से बहुत बुरा और अपमानजनक माना जाता था” रूप उपाध्याय ने बताया |
मंडी रियासत काल के दौरान राजाओं द्वारा निर्मित “नाच घर” (अब जनरल पोस्ट ऑफिस भवन) में लगभग 1965 के बाद भवानी दत्त शास्त्री जी सहित कुछ गणमान्यों की अनेकों सृजनात्मक गतिविधियों (जिनमे मुख्य रूप से पेंटिंग, संगीत, लोक नाट्य और लेखनी थी) के युग की समाप्ति के साथ ही सृजन के प्रयत्न का सामूहिक दौर भी समाप्त हो गया था और सृजन के प्रयत्न व्यक्तिगत हो गए थे |
रूप उपाध्याय का नाटक से पहला परिचय भोपाल में हुआ था जब वह तीसरी कक्षा में पढ़ते थे और भोपाल जाने का कारण उनके पिता डॉ नीलमणि उपाध्याय की मध्य प्रदेश विश्वविद्यालय में बतौर प्राद्यापक नियुक्ति होना थी | रूप ने बताया की वहां उनके स्कूल परिसर में शाम ढलते ही नाटकों की रिहर्सल करने कलाकारों का हजूम ईकठा हो जाता था और धीरे-धीरे वह भी इनका हिस्सा बन गये और कब विधा के स्वरूपों को अपने में समां लिया पता भी नहीं चला |
“ मैं जब उन्नीस सौ सत्तर (1974) के दशक में रंगमंच के पुन: निर्माण, या कहूँ नव-निर्माण, के दौर को लेकर जब अतीत में झांकता हूँ तो अनेकों चेहरे सामने आ जाते हैं और याद आती है संघर्ष, अभाव और अपमान से भरे उस दौर की जब नाटक करने के बारे सोचना भी सामाजिक दृष्टि से हीन माना जाता था | यह मेरे मंडी वापिस आने के बाद मेरे लिए नाटक और रंगमंच की पुनः शुरआत करने और प्रथम संघर्ष का सबसे कठिन दौर था जो 1974 से शुरू होकर लगबग 1996 तक चला” रूप ने बताया |
रूप उपाध्याय के अनुसार उन्होने अपने कुछ मित्रों सहित एक छोटा सा ग्रुप बनाया “ *झुमरू* ” और फिर 1975 में “ *यंग्स* एसोसिएशन” संस्था की स्थापना की और 1986 में ‘ *प्रयास कला परिषद्* ’ की स्थापना की और नाटक की सृजनात्मकता का दौर भी करवट लेने लगा था । रूप उपाध्याय ने भावुक होकर बताया कि वह अपने पिता स्वर्गीय डॉ नीलमणि उपाध्याय जी, जो सम्माननीय साहित्यकार, लेखक, इतिहासकार और शिक्षाविद्द रहे, ने उन्हें नाटक करने के लिए प्रोत्साहित किया अन्यथा नाटक करने वालों के प्रति सामाजिक हेय दृष्टि के उस दौर में शायद परिवार के दबाव में आकर उनके पिता भी उन्हें नाटक न करने की चेतावनी दे देते….क्योंकि ये वाक्य किसी जहर बुझे तीर से कम नहीं होता कि जब घर वालों को ताने (कटाक्ष) बतौर सुनना पड़े कि उनका लड़का किसी काम का नहीं है इसलिए नाटक करता है । कमोबेश समाज की ऐसी संकीर्ण मानसिकता, साधनो का अभाव और जीवन में अपना करियर बनाने का दबाव किसी की भी हिम्मत तोड़ सकता था ।
अब सबसे पहली चुनौती तो यही थी की स्थानीय कलाकारों को नाटक के संजीदा स्वरुप से कैसे परिचय करवाया जाये ? क्योंकि किसी ने कभी दिल्ली या चंडीगढ़ जाकर थिएटर में नाटक और रिहर्सल तक नहीं देखी थी ऐसे में उन्हें नाटक की संजीदगी और कड़ी तपस्या का प्रारूप समझा पाना किसी भागीरथी प्रयत्न से कम नहीं था ।
कहते हैं जहाँ चाह हो वहां राह भी निकल आती है | यह बात 1979 की है । मेरे भोपाल के सहपाठी और नाटक के सहयोगीयों से पत्राचार चलता रहता था (तब आज की तरह मोबाइल नहीं थे) और तभी मालूम पड़ा कि उनमें से कुछ अब देहरादून आ गए हैं और वहां के सांस्कृतिक दल नटराज कला केंद्र से जुड़े हैं और हर वर्ष राष्ट्रिय स्तर पर नाटक और नृत्य प्रतियोगिता का राष्ट्रिय स्टार का भव्य आयोजन करते थे । उन्होंने मुझे मेरे दल सहित देहरादून आने को कहा तो मैंने अपनी बात सामने रखी कि पहाड़ी नृत्य शैली में तो हमारा कोई शानी नहीं है मगर नाटक अभी गर्भावस्था में है । खैर, तय हुआ की मैं नृत्य सहित नाटक भी तैयार करके देहरादून जाऊं ताकि मेरे कलाकार नाटक के माहौल और संजीदगी से परिचित हो सकें और पहाड़ों में भी संजीदा नाटक की शुरुआत हो जाये |
उस दौर में नाटक को कोई भी कलाकार गंभीरता से नहीं लेता था फिर भी मैंने डेढ़ घंटे का नाटक लिखा ‘एक अंतहीन अंत’ और रिहर्सल के साथ कलाकारों को नाटक की संजीदगी समझाने की असफल कोशिश की । मुझे पता था और ये बात मेरे पुराने सहयोगी और देहरादून में कार्यक्रम के आयोजकों को भी पता थी कि हम स्टेज पर ज्यादा देर नहीं टिक पाएंगे । हुआ भी वही, हम मात्र दस मिनटों में स्टेज पर धराशाही हो गए….मगर इस असफल प्रस्तुति से एक नए युग का सूत्रपात हो गया था । मेरे कलाकारों को पहली बार नाटक की संजीदगी का पता चला और वहां लगभग पूरे उत्तर भारत से आए नाटक के दलों के कलाकारों की नाटक प्रस्तुति और रिहर्सल और तपस्या का उन्हें पहली बार पता चला और उन्होंने इसे आत्मसात कर भविष्य में स्वंय को कलाकार सिद्ध करने का प्रण भी ले लिया…अर्थात मेरा प्रयत्न सफल रहा । रूप का यह भी कहना है कि मैं जिसे समझाने-समझने के लिए वहां गया था वो अब समझ गए थे … नाटक के नए योद्धा अब नई ईबारत लिखने को तैयार थे |
इसी बीच मैं 1981 रूप उपाध्याय उच्च शिक्षा के लिए दिल्ली यूनिवर्सिटी चला गए और नाटक के नव निर्माण के इस सफ़र में एक बार फिर ब्रेक लग गई |
वापिस आकर रूप उपाध्याय ने फिर कुछ नया और अद्भूत करने की ठानी और बेन जोहन्सन लिखित तीन घंटे का नाटक ‘ *चोर के घर मोर’* (Volpone) को मंडी शहर में थिएटर और साधनों के अभाव के बीच एक विडियो हाल (आर के आर ऑडिटोरियम) एक हफ्ते के लिए किराये पर ले लिया और स्टेज का निर्माण नाटक के कलाकारों ने और साथियों ने लकड़ी के बड़े बड़े शहतीरों को जोड़ कर कड़ी मेहनत से खड़ा किया। देखते ही देखते नाटक के लिए थिएटर तैयार हो गया था जहाँ व्यावसायिक नाटक की तर्ज पर मंडी का पहला तीन घंटे का नाटक पंद्रह मिनट के इंटरवल सहित तीन दिन चलने वाला था….दिल्ली के व्यावसायिक थिएटर की तरह….व्यावसायिक नाटक की तर्ज पर यह ‘फुल लेंथ’ नाटक मंडी के इतिहास का पहला प्रयोग था और सफल प्रयोग था जिसे प्रयास कला परिषद् के बैनर तले मंचित इस नाटक के अधिकतर कलाकारों ने पहली बार नाटक में काम किया था । यह नाटक 1986 में शिमला के काली बड़ी हाल में भी खोला गया जो मंडी से इस तरह की पहली प्रस्तुति थी ।
रूप ने कहा कि तीन घंटे के नाटक की प्रस्तुति का ये प्रयास सफल रहा। तीन दिन सबने महसूस किया की अब हम भी किसी से कम नहीं है। इस नाटक की प्रस्तुति से कलाकारों में गजब का आत्मविश्वास आ गया था जो की मंडी में नाटक के पुन: निर्माण, या कहूँ नव-निर्माण के लिए अति आवशयक था और मुझे ख़ुशी थी कि मैं इस उद्देश्य में सफल रहा क्योंकि यही वो नीव थी जिस पर अब भविष्य का निर्माण होना था और ऐसा हुआ भी क्योंकि इस नाटक और पूर्व के कुछ नाटक के कलाकार अब स्वतंत्र रूप से नाटक करने का साहस जुटा चुके थे और नाटक के नव-निर्माण का रूप उपाध्याय का सपना अब फलीभूत भी होने लगा था।

रंगमंच की विभिन्न विधाओं में अगला प्रयोग कहानी का नाट्य रूपांतरण करना था और यह भी मंडी के नाटक के इतिहास का पहला ही प्रयोग था । रूप उपाध्याय ने 1994 में नरेश पंडित की कहानी “ *छुनछुना* ” का नाट्य रूपांतरण किया जिसमे एक घंटे के नाटक में अनीता पुरी और वोल्गा ने माँ-बेटी का जिवंत किरदार निभाया था । जिसने मौजूदा दर्शकों को रोने पर विवश कर दिया था ।
प्रयोग की इसी कड़ी में 1996 में राष्ट्रिय कवि त्रिलोचन जी की लम्बी कविता “ *नगई महरा”* का नाट्य रूपांतरण किया जिसे मंडी के गाँधी भवन के हाल में प्रदर्शित किया । इस नाटक की विशेषता ये थी कि इस नाटक का पाश्र्व संगीत मंडी की प्रख्यात संगीतविद उमा शर्मा ने अपने विशाल समूह के साथ दिया था ।
रूप ने बताया कि 1996 के बाद मंडी में उनके साथ *यंग्स एसोसिएशन* और *प्रयास कला परिषद्* के बैनर में काम करने वाले अनेकों कलाकार (पवन शर्मा, राजेश मिश्र और अतित भंडारी आदि) राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय दिल्ली तक पहुंचे और फिर प्रदेश में उन्होंने स्वतंत्र रूप से अपने कला मंच बनाए और इस बीच सीमा शर्मा ने भी सतोहल में नाट्य अकादमी 1998 में शुरू की। इसके साथ ही इसी दौर में कुछ एन एस डी दिल्ली से प्रशिक्षित युवा कलाकारों ने नाटक को विभिन्न आयोजनों (कार्यशाला का आयोजन और प्रस्तुति आदि) से आगे बढाया और नई गति और उर्जा भी दी जिससे नाटक के पुन: निर्माण, या कहूँ नव-निर्माण का सपना भी पूरा हुआ और जिसका परिणाम है कि मंडी जैसे छोटे से शहर में ही आज एक व्यापक नाटक संसार बस गया है और आज लोग नाटक को खेलना भी बुरा नहीं समझते हैं । रूप ने कहा कि यही उनका सपना था जिसे पूरा करने में उन्होंने बहुत कुछ पाया भी और बहुत कुछ खोया भी ।

रूप एक बहुआयामी व्यक्तित्व
रूप उपाध्याय ने गवर्नमेंट कॉलेज संजौली (शिमला) और कई शिक्षा संस्थाओं में कई वर्षों तक रंगमच के पुनः निर्माण की प्रक्रिया के अपने मिशन को पूरा करने के लिए नाटक तैयार करवाए और कई बार राज्य और राष्ट्रिय स्तर पर युवा कलाकारों ने ईनाम भी जीते । रूप उपाध्याय ने इसी बीच दिल्ली में विसुअल मीडिया और पत्रकारिता से जुड़े और अनेकों टी वी सीरियल और टेलिफिल्म (तब दूरदर्शन ही मुख्य था) में बतौर लेखक, कलाकार और निर्देशक का काम किया और हिंदी की कई पत्रिकाओं व् समाचार पेपरों सहित हिंदुस्तान टाइम्स, द स्टेट्समैन और ब्लिट्ज जैसी इंग्लिश अंतर्राष्ट्रीय अखबारों के वरिष्ठ संवाददाता रहे |
*मंडी शिवरात्रि का पहली बार अंतर्राष्ट्रीय प्रसारण*
रूप उपाध्याय जब राष्ट्रीय टी वी चैनल “आस्था” में क्रिएटिव हेड थे तो सन 2001 और 2002 में उन्होंने मंडी की शिवरात्रि का प्रसारण अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लगभग 163 देशों में किया जिसकी एवज में उन्होंने प्रशासन और मेला कमेटी से एक रूपया भी एवज में नहीं लिया ।
इस प्रसारण की विशेषता यह भी रही कि उस दौर में अभी इंटरनेट और डिजिटल जैसी सुविधा नहीं थी और रूप उपाध्याय की दो कैमरा टीमें दिन भर शूटिंग करने के बाद ‘बीटा कॉम फॉर्मेट’ की कैसेट्स शाम को मंडी-दिल्ली जाने वाली हिमाचल रोडवेज बस से दिल्ली भेजते थे जिसे सुबह आवश्यक एडिटिंग उपरान्त सुबह 11 बजे और शाम को इसी का रीपीट टेलीकास्ट शाम को चार बजे होता था जिसे प्रशासन ने पहली बार चौहट्टा में टी वी लगाकर इसका प्रसारण किया था ।
प्रदेश में फिल्म और टी वी शूटिंग को किया प्रोमोट
रूप उपाध्याय ने अपने प्रयत्नों से और अपनी जिम्मेवारी पर प्रदेश में शूटिंग को प्रोमोट और प्रोत्साहित करने का प्रयास किया और 1992 में 13 एपिसोड टी वी सीरियल ‘ *नरगिस* ” की शूटिंग ठियोग (शिमला) में की जिसमे रूप चीफ असिस्टेंट डायरेक्टर बतौर काम कर रहे थे । 1990 में जंजैहली (मंडी) में ढेड़ घंटे की हास्य फिल्म “ *दिल की दुकान* ” और पालमपुर (काँगड़ा) के पास मारंडा में शिव कुमार की फिल्म “ *विभाजन* ” की एक महीने की लम्बी शूटिंग की ।
*बॉक्स*
*गृह मंत्री लाल कृष्ण आडवाणी और मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल भी कर चुके हैं रूप उपाध्याय के कार्यों की सराहना**

चम्बा के 1998 में मिंजर मेले के दौरान 35 लोगों के हत्याकांड पर भारत के गृह मंत्रालय के लिए पूरी विस्तार से डॉक्यूमेंटेशन की थी जिसे पूर्व गृह मंत्री लाल कृष्ण आडवाणी और प्रदेश के मुख्य मंन्त्री प्रेम कुमार धूमल ने सराहा था और जिस की विस्तार रिपोर्ट के कारण जम्मू कश्मीर से हिमाचल के सरहद का विवाद भी सुलझा था और हिमाचल को केंद्र की तरफ से बॉर्डर सुरक्षा के लिए विशेष पैकेज भी मिला था ।
वो पल जो भुलाये भी भूलते नहीं
1, ‘ *चोर के घर मोर* (Volpone)’ नाटक के लिए मंडी के मशहूर वजीर परिवार (रमण बिष्ट जी) से उनका वीडियो थिएटर (हाल) मैंने एक हफ्ते के लिए किराये पर लिया था और मंडी में पहला ‘फुल लेंथ’ प्ले का मंचन भी तीन दिन चला मगर नाटक से आमदनी नाममात्र की हुई थी और मैं रमन जी के पैसे देने में असमर्थ था इसलिए मैं कई सालों तक उन्हें देख छिपता रहा। इसी बीच मेरे स्वर्गीय पिता डॉ नीलमणि उपाध्याय रमण बिष्ट जी के संसथान ‘हृदय वासी सेवा ट्रस्ट’ से जुड़े । फिर कई सालों बाद अचानक मेरा रमन जी से सामना हुआ तो मैं शर्म से पानी- पानी हो गया था मगर तभी रमन जी बोले कि मेरे पिता जी ने उनकी संस्था के लिए इतने वर्षों में इतना कुछ किया है कि उन्होंने मेरा कर्जा भी उतार दिया और भविष्य के लिए भी उन्हें ऋणी कर दिया है इसलिए भविष्य में जब जरूरत हो तो वह फिर से मुझे नाटक के लिए मदद को तैयार हैं। मेरी आँखें भर आई थी, लगा नाटक के मंचन में हम 1986 में नहीं आज सालों बाद सफल हुए हैं ।

2, लाइट्स के जुगाड़ की कहूँ तो इस काम में रविन्द्र शर्मा भी जनूनी इंसान थे और नाटक के लिए लाइट और साउंड का इंतजाम इतने बड़े दिल से करते थे कि कार्यक्रम के बाद अगर पैसे मिल गए तो भी ठीक और नहीं मिले तो भी ठीक ।
3, तरुण भंडारी 1992 में सर्व शिक्षा अभियान के कला जत्था से जुड़े और वृत्त आंगन नाटक लिखने और निर्देशित करने के साथ साथ स्वंय बतौर कलाकार भी लम्बे समय तक जुड़े रहे और इसी लम्बी यात्रा में अपने स्वास्थय को नहीं संभाल पाए और नाटक को समर्पित व्यक्तित्व नाटक में ही समां गया ।
4, वृत्त आंगन नाटक की प्रस्तुति के लिए प्रयास के बैनर के तहत हम 1 9 8 0 में कुल्लू के बाद मनाली गए थे और वहां पर दो तीन शो के बाद हम सब लोग भयंकर बारिश के दौर में फंस गए थे। मनाली से लगभग चार दिन रास्ते बंद रहे और इसी बीच हमारी टीम के पास पैसे ख़त्म हो गए थे और वापसी का किराया भी नहीं बचा था । तब हेमराज भारद्वाज, जो एक बहुत अच्छे पेंटर हैं, उनके साथ मिल कर टीम के सब सदस्यों ने दुकानों के साइन बोर्ड लिखने और पेंट करने का काम किया और जब किराये के लायक पैसे जमा हुए तब वापिस मंडी पहुंचे |
________________________________________________

Panch Line
“1965 के बाद शून्य के उस दौर में लोक नाट्य और सजीव नाटक की सृजनात्मकता तो हासिये पर पहुँच गई थी | नाटक को हीन समझने के उस दौर में खुले में मंच पर आकर नाटक कर अपमानित होने का ‘रिस्क’ भला कौन लेता । मगर रिस्क लिया गया और आज उसका परिणाम है की नाटक मुखर हो उच्च कला का दर्जा पा चुका है” : रूप उपाध्याय

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *